Mere Nakshe Ke Mutabik
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Author: Suraj Paliwal
Brand: Vani Prakashan
Edition: First Edition
Binding: Hardcover
Number Of Pages: 192
Release Date: 15-02-2025
EAN: 9789369441822
Languages: Hindi
समकालीन हिन्दी आलोचना में सूरज पालीवाल का विशिष्ट स्थान है। मुख्य रूप से कथा साहित्य उनके अध्ययन और लेखन का क्षेत्र रहा है। समकालीन साहित्य पर उन्होंने निरन्तर नज़र बनाये रखी है। रचनात्मक साहित्य का आकलन और मूल्यांकन प्रखर सामाजिक चेतना और संवेदना की माँग करता है। सूरज पालीवाल ने इस दिशा में पुरानी लीक से हटकर अलग रास्ता बनाया है, उन्होंने नयी कसौटी पर समकालीन कथा साहित्य को देखा-परखा है तथा उसके अन्तर्विरोधों को रेखांकित किया है। इसीलिए उनके लेखन में व्यापक दृष्टिकोण, सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों के प्रति अकुलाहट और चिन्ताएँ साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं। अलीगढ़ वह शहर है जिसने छोटे-बड़े ढेर सारे लेखकों को चेतना समृद्ध किया है, उनकी ज़िन्दगी को आकार दिया है और रचनात्मक ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। सूरज पालीवाल ने भी अपनी शिक्षा-दीक्षा से लेकर लेखन की शुरुआत अलीगढ़ से ही की है। वे मूलतः कथाकार हैं इसलिए चाहे समीक्षा हो या आलोचना हो या संस्मरण कथारस की उपस्थिति उनके लेखन को प्रभावी बनाती है। एक सहृदय और संवेदनशील लेखक के लिए इन्सानी रिश्ते बहुत अहमियत रखते हैं इसलिए उनके इन संस्मरणों में अपने गाँव से लेकर शहर, संस्थान, व्यक्ति और उनके सरोकार सब गहरी आत्मीयता के साथ साक्षात् होते हैं। —नमिता सिंह ★★★ कथेतर गद्य में संस्मरण सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली विधा है। आत्मकथा और पत्र-साहित्य के बाद लेखक और उसके समय को पहचानने का और सच्चा रास्ता संस्मरणों के माध्यम से ही खुलता है। आत्मकथाओं के लिए जिस तरह की ईमानदारी की ज़रूरत होती है, वह हिन्दी लेखकों में कम ही पायी जाती है इसलिए आत्मकथाएँ बहुत कम लिखी गयी हैं। आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया के आने के बाद पत्र लिखने का प्रचलन बहुत कम हुआ है इसलिए संस्मरण ही बचे हैं जो लेखक के जीवन और उसके संघर्षों से रूबरू कराने का सशक्त माध्यम हैं। सूरज पालीवाल के पास क़िस्सों का ख़ज़ाना है तो ताज़गी भरी भाषा भी। इसलिए गौरैया की तरह फुदकती भाषा में वे अपने आसपास को रचते हुए संस्मरणों को औपन्यासिक विधान देते हैं। इन संस्मरणों में पूरा जीवन है और उसके विकट अनुभव हैं। गाँव और शहरों की समस्याओं के साथ शिक्षा, शिक्षण संस्थान तथा साहित्य और साहित्यकारों की अछूती दुनिया संस्मरणों में एक ओर उजास की किरणें बिखेरती हैं तो दूसरी ओर चिन्ताएँ भी उभारती हैं। अपनी पहली पीढ़ी के शिक्षित युवा के सपने कभी दुःस्वप्नों में परिवर्तित होते हैं तो कभी आकाश छूने की इच्छा में अनवरत उड़ते हुए दिखाई देते हैं। सूरज पालीवाल के ये संस्मरण उनके अपने भी हैं और उन जैसे युवाओं के भी, जो अपने गाँव से बड़े सपने लेकर शहर आते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कठोर परिश्रम करते हैं। उनके लिए दुनिया की मामूली उपलब्धि भी सहज सुलभ नहीं होती। इन संस्मरणों का आयतन बड़ा है और परिप्रेक्ष्य वृहत्। दुनिया कभी इकरंगी नहीं रही लेकिन इतनी बहुरंगी भी नहीं रही, जितनी आज है। इस बहुरंगी दुनिया के धवल, स्याह और धूसर चित्र संस्मरणों में जिस तटस्थता के साथ आये हैं, वे इन्हें हमारे समाज का आईना बनाते हैं। यह सही है कि दुनिया कभी अपने नक्शे के मुताबिक़ नहीं बनती लेकिन आकांक्षा तो बलवती होनी ही चाहिए कि वह ‘मेरे नक़्शे के मुताबिक़’ बन सके। "