Patrakarita Ke Naye Pariprekshay
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Book Details:
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Publisher: Vani Prakashan
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ISBN: 9788170558293
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Binding: Hardcover
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Languages: Hindi
About the Book
पत्रकारिता खास तौर से हिन्दी की पत्रकारिता, आज एक विचित्र संकट से गुजर रही है। उसका शरीर स्थूल और चिकना होता जा रहा है, लेकिन उसकी आत्मा के बारे में यह शक बढ़ता जा रहा है कि कहीं वह कूच तो नहीं कर रही है? व्यावसायिकता की नयी धमाचौकड़ी ने किसी भी चीज को पवित्र नहीं रहने दिया है, तो व्यावसायिक संस्कृति की नींव पर खड़ी पत्रकारिता अपने शील की रक्षा कैसे कर सकती थी? इस दलील को जो लोग अपरिहार्य मानते हैं, वे भी पत्रकारिता से यह माँग करते हैं कि उसे सूचना उद्योग के कुछ बुनियादी मूल्यों की रक्षा तो करनी ही चाहिए। लेकिन क्या पत्रकारिता की बुनियाद में ही कुछ गड़बड़ नहीं है, जिसके कारण वह जिस लोकतंत्र की रक्षा का दम भरती है, उसकी आहट भी वह अपने निजी तंत्र में बर्दाश्त नहीं कर सकती? आखिर क्या वजह है कि समाज में हाशिये पर फेंक दिए गए लोग पत्रकारिता में भी हाशिये पर ही हैं-और अब तो वहाँ भी उनके लिए जगह कम होती जा रही है? सारे के सारे विज्ञापन स्त्री की त्वचा पर ही क्यों लिखे जाते हैं? समाचार का चरित्र तो एकदम ही बदल दिया गया है, ताकि पैसे की नयी बहार से पैदा हो रही जीवन शैली के स्वादों को संतुष्ट किया जा सके। हिन्दी पत्रकारिता के संदर्भ में यह सब कुछ अधिक ही चिंतनीय इसलिए है कि अभी हाल तक पत्रकार लेखक की ही तरह सामाजिक श्रद्धा का पात्र था