व्रत विधान- विवाह एवं सन्तान: Vrat Vidhan -Marriage and Child
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Author: Mridula Trivedi, T. P. Trivedi
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Publisher: Alpha Publications
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Language: Sanskrit Text With Hindi Translation
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Edition: 2011
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Pages: 510
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Cover: Paperback
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Dimensions: 21.5 cm x 14 cm
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Weight: 560 gm
Book Descriptionग्रन्थपरिचय
(व्रत विधान: विवाह एवं सन्तान)
कलिकाल के वर्तआन चक्र के विकृत एवं विरूपित स्वरूप में निमग्न होते जा रहे समाज के मध्य व्रत संषादन की लोकप्रियता, उपयोगिता तथा उसके विलक्षण प्रभाव की महिमा को व्रत विधान : विवाह एवं सन्तान' नामक कृति के मधुरिम मधुवन के महकते प्रांगण में सम्बन्धित जातन्त्रें के क्यूख प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है । यह कृति नौ पृथक्पृथक् अध्यायों में व्याख्यायित है जिन्हें अग्रांकित शीर्षकों से नामांकित किया गया है।
मंत्र सैद्धान्तिक विश्लेषण, वैवाहिक विलम्ब एवं ग्रहयोग ज्योतिषीय विश्लेषण, वैवाहिक विलम्ब कुछ अनुभूत मंत्र, स्तोत्र एवं प्रयोग, व्रत परिज्ञान प्रविधि एवं प्रावधान, वैवाहिक समस्याओं का सुगम समाधान व्रत विधान, विशिष्ट व्रत का अनुसरण वैवाहिक विसंगतियाँ, वैधव्य, पार्थक्य का शमन, संतति प्रदाता: परिहार प्रावधान, सर्वश्रेष्ठ अनुष्ठान व्रत विधान तथा प्रमुख पुत्र प्रदाता व्रत एवं विधान।
विविध व्रत विधान, विवाह एवं सन्तान से सम्बन्धित अनेक सुगम समाधान इस कृति में समायोजित किये गये हैं । प्राय: व्रत और उपवास की भिन्नता से अनभिज्ञ जनसामान्य व्रत को अनुष्ठान के रूप में उपयोग करने तथा उसके चमत्कृत कर देने वाले प्रभाव से अपरिचित है। इस वास्तविकता की सम्यक् व्याख्या खत विधान विवाह एवं सन्तान' नामक कृति मैं आविष्ठित है। वैवाहिक विलम्ब एवं विघटन का सुगम समाधान है मंत्रजप, स्तोत्र पाठ, व्रत और दान। इसी प्रकार से संततिहीनता को संतति सुख में रूपांतरित करने हेतु विविध विधान मंत्र प्रयोग तथा अनेक व्रत और उनका अद्भुत एवं अनुभूत व्यावहारिक पक्ष इस कृति में समायोजित किया गया है।
वैवाहिक विलम्ब, विघटन, संततिहीनता अथवा शाप से ग्रसित अनेक ऐसे जातक हैं जो संस्कृत के मंत्र, स्तोत्र तथा अनुष्ठान का प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं हैं तथा न ही वह योग्य आचार्यो द्वारा सम्बन्धित अनुष्ठानों का प्रतिपादन कराने में सक्षम हैं । विवाह एवं सन्तान सुख हेतु आतुर एवं प्रतीक्षारत जातकों के लिए सर्वाधिक सुगम मार्ग है, उपयुक्त व्रत का चयन तथा विधि विधान सहित उसका अनुकरण, प्रारम्भ एवं उद्यापन आदि, जो इस कृति का सर्वस्व है । इस कृति में अनेक पुत्रप्रदाता व्रत एवं संतति सुख की कामना की संसिद्धि हेतु विविध व्रत एवं विधान समायोजित किये गये हैं, जो अद्भुत और अनुभूत हैं जिनमें से कात्यायनी व्रत, पुंसवन व्रत, पयोव्रत, श्रावण शुक्ल एकादशी व्रत, षष्ठी देवी व्रत आदि प्रमुख हैं तथा वैवाहिक विलम्ब के समाधान हेतु विविध वारी, से सम्बन्धित व्रतविधान और वैवाहिक संकट एवं व्यवधान के परिहार हेतु मंत्रजप, स्तोत्र पाठ आदि के साथसाथ उसके विधान भी इस कृति में सात्रिहित हैं।
यह कृति अपनी सारगर्भिता, सार्वभौमिकता तथा उपयोगिता के कारण समस्त ज्योतिष प्रेमियों के लिए अत्यन्त हितकर और लाभप्रद सिद्ध होगी, इसमें किंचित् सन्देह नहीं।
पुरोवाक्
व्रतोपवासनिरता या नारी परमोत्तमा ।
भर्तारं नानुवर्तेत सा च पापगतिर्भवेत् ।।
जो नारी जाति और तक्षणों से अलकृत है एवं सदैव व्रतउपवास में
सलंग्न भी रहे पखं अपने जीवन सहचर के मनोनुकूल कृत्य न करे तो वह पाप
की भागी होती है अर्थात् पति की आज्ञा और आकांक्षा का अनुसरण करना सभी
प्रकार के व्रत और धर्म की अपेक्षा सर्वोपरि है
विकास के अलंध्य अंतरालों को अतिक्रमित करता हुआ मानवसमाज यात्रा के जिस बिन्दु पर स्तब्ध खड़ा है, वह तलस्पर्शी चिन्ता का विषय है । दुष्प्रवृत्तियों के रावण का अट्टहास विकराल रूप प्राप्त कर रहा है और मानवीय मूल्यों के राम का स्थायी वनवास हो गया है । व्यापक सामाजिक हितों के संरक्षक एवं जनजन को आत्मीयता के पीयूष से सिंचित करने वाले रागसंदर्भ सर्पदंशित रोहिताश्व की भांति आस्था का आँचल ओढ़कर जीवन के दाहघाटों पर भस्मीभूत होने के लिए बाध्य हैं।
इस प्रताड़ित परिवेश में समस्त सामाजिक संस्थाएँ अस्तित्वसंकट की दुराशंका से घिर गयी हैं। विवाह नामक संस्कार और परिवार नाम्नी संस्था ने इस विघटनशील युग के सर्वाधिक घातप्रतिघात सहन किए हैं । सम्प्रति सर्वतोभावेन उपयुक्त परिणय संपन्न होना एक दुस्साध्य और दुष्कर प्रक्रिया बन गयी है । उसमें भी समस्या का संदर्भ यदि कन्या के विवाह में जुड़ता हो तो स्थिति की भीषणता का अनुमान कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है।
कन्याओं का विवाह सर्वदा से समस्यापूर्ण रहा है । परंतु साम्प्रतिक समाज में यह स्थिति और त्रासद हो गयी है। अनेकानेक कन्याओं की वरमाला उनके हाथों में ही मुरझा जाती है अथवा उनका परिणय तब सम्पन्न होता है जब उनके जीवन का ऋतुराज पत्रपात की प्रतीक्षा में तिरोहित हो जाता है। वैवाहिक विलम्ब के अनेक कारण हो सकते हैं। आर्थिकविषमता, शिक्षा की स्थिति, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शारीरिक संयोजन, मानसिकसंस्कार, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा, वैचारिक अन्तर्विरोध आदि अनेक कारण वैवाहिक विलम्ब के लिए उत्तरदायी सिद्ध होते हैं।
कन्या के वयस्क होते ही उसके अभिभावक उसके परिणय का उपक्रम प्रारम्भ कर देते हैं। यदि उचित समय पर अनुकूल वर उपलब्ध नहीं होता तब अभिभावक अनागत की व्याख्या के लिए जन्मांग लेकर ज्योतिर्विदों की शरण में जाते हैं ।
इस अवधि में ज्योतिष से विभिन्न रूपोंप्रारूपों सै सम्बद्ध समस्याएँ लेकर सहस्राधिक व्यक्ति (स्रीपुरुष) हमारे अनुभवक्षेत्र में आये हैं, उनमें से 3000 से अधिक व्यक्ति वैवाहिक विलम्ब की समस्या से आक्रान्त थे। प्राय: प्रतिशत समस्याएँ कन्याओं के वैवाहिक विलम्ब अथवा उनके दाम्पत्य अन्तर्विरोधों से सम्बन्धित थीं । वैवाहिक विलम्ब से पीड़ित अनेक कन्याएँ ऐसी थीं, जिनके अभिभावक वर्षो से तथाकथित ज्योतिर्विदों की चरणधूल प्राप्त कर रहे थे । ज्योतिर्विदों द्वारा जन्मांग के निरीक्षणोपरान्त विवाह की जो तिथि बताई गई उसकी अनेक आवृत्तियाँ हुई, पर किसी भी उपाय से परिणय की पूर्व घोषित बेला नहीं आई । प्राय: ऐसे ज्योतिषाचार्यों को इस तथ्य का ज्ञान तक नहीं होता कि वस्तुत: वैवाहिक विलम्ब के लिए उत्तरदायी ग्रहयोग कौन से हैं। मात्र सप्तम भाव पर कूर ग्रहों का प्रभाव पड़ता देखकर वैवाहिक विलम्ब को आद्यन्त परीक्षित घोषित करना नितान्त अनुचित है।
इस पुस्तक की अन्तर्वस्तु के कुछ प्रमुख पक्ष यहाँ संक्षेपित हैं जो वैवाहिकविलम्ब के संदर्भ में निरन्तर विवाद का विषय रहे हैं । वैवाहिक विलम्ब की समस्या को हल करने के लिए प्राय: मंत्रसाधना का परामर्श दिया जाता है, किन्तु मंत्रसाधना की शास्रानुमोदित एवं अनुभवसिद्ध प्रविधि क्या है इसका सम्यक् लान न तो मन्त्रप्रदाता को होता है और न ही मन्त्रगृहीता को । अतएव साधना से पूर्व मन्त्र क्या है मंत्र साधना किस प्रकार और कब तक करें प्रारम्भ और समापन कैसे करें एवं स्वानुकूल मंत्र का चयन कैसे करें आदि तथ्यों का पूर्ण अभिज्ञान होना अनिवार्य है । एक अध्याय इन्हीं विषयों पर केन्द्रित है जिसमें मंत्रों एवं प्रयोगों को सावधानीपूर्वक चयन पद्धति से परिभाषित कर दिया गया है।
वैवाहिकविलम्ब की परिशान्ति की दिशा में मंत्र के साथ व्रत की भी महत्ता उल्लेखनीय है । व्रत भारतीय संस्कृति का ऊर्जस्वल आयाम है । परन्तु बहुसंख्य जनसमूह व्रत के मौलिक स्वरूप को विस्मृत कर चुका है । आज व्रत और उपवास समान अर्थों में व्यवहृत हो रहे हैं । इस विषय को 'व्रत का तत्वार्थ', 'व्रत और उपवास के पार्थक्य बिन्दु' शीर्षक बिंदुओं में विभक्त करके व्रत की बहुआयामी संस्कृति को उपस्थित करने का यत्न किया गया है । व्रत के आरम्भ और उद्यापन को भी रेखांकित किया गया है।
आधुनिक युग में, जब अध्ययन, मनन, चिन्तन की चेतना, कतिपय विशिष्ट अध्येताओं तथा पाठकों तक ही परिसीमित है, ऐसी स्थिति में ज्योतिष के लुप्तप्राय ज्ञान के प्रति, पाठकों की रुचि में संवर्द्धन अवश्य ही उत्साहवर्द्धक है।
कलिकाल के वर्तमान चक्र में, विकृत एवं विरूपित स्वरूप में निमग्न होते जा रहे समाज के मध्य व्रत सम्पादन की लोकप्रियता, उपयोगिता के कारण इस कृति की संरचना हुई । सहस्रों कन्याओं का जीवन, जो विवाह की प्रतीक्षा मैं निराशा के दंशाघात की सहनशक्ति के अन्तिम चरण का उल्लंघन कर चुका था और जब उनकी विवाह की समस्त संभावनाएँ शून्य में विलीन हो गई थीं तो हमारे परामर्श के अनुसार व्रत का अनुसरण किया, जिसके फलस्वरूप उनके जीवन का संत्रास, दाम्पत्य के उपवन के महकते मधुमास में रूपांतरित हो उठा।
सम्प्रति, वैवाहिक जीवन से संदर्भित संबंधित समग्र जिज्ञासा, कौतृहल, उत्सुकता के विस्तृत, सरल, सरस एवं सघन संघन के अनेक अनुसंधान सूत्र के सारस्वत संकल्प एवं जन्मांगों के व्यावहारिक अध्ययन एवं प्रतिफलन के पश्चात समस्त पक्षों का परिज्ञान शास्त्रसम्मत सुव्यवस्थित स्वरूप में उपयुक्त व्रत विधान के अंतर्गत इस रचना में सम्मिलित किया गया है। पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा और आकांक्षा की प्रबलता स्वाभाविक है । अनादिकाल से पुत्र जन्म हेतु महाराजा दशरथ सदृश महापुरुषों ने भी अनेक प्रकार की तपस्याएँ, साधनाएँ और यज्ञ संपादित किए । त्रेता और द्वापर युग में तप और यश के मर्म से हमारे ऋषि महर्षि भलीभाँति परिचित थे जिनके प्रतिपादन मात्र से संततिहीनता अथवा पुत्र शोक से मुक्त होकर, साधक शीघ्र ही पुत्रवान तथा संततिवान बनने के गौरव से अभिसिंचित हो उठता था । आधुनिक युग का समस्त चिकित्सा विज्ञान और जीवविज्ञान का सयुक्त उपयोग भी, पुत्र जन्म सुनिश्चित करने में असमर्थ और अब तक असफल एवं असहाय ही सिद्ध हुआ है । अल्ट्रासाउण्ड अथवा गर्भाशय के तरल तत्त्व की वैज्ञानिक परीक्षा करके, चिकित्सा विज्ञान, मात्र गर्भस्थ शिशु के पुत्र अथवा पुत्री होने की ही पुष्टि कर सकता है परन्तु युवती के गर्म में पुत्र की ही संरचना हो, यह भला कैसे संभव है। हम स्तंभित रह जाते हैं, मंत्र शक्ति, स्तोत्र पाठ और व्रत विधान के परिणाम के चिन्तन मात्र से ही, जिसके विधिपूर्वक अनुकरण से अभीष्ट सन्तान अर्थात् पुत्र अथवा पुत्री का गर्भस्थ होना सुनिश्चित हो जाता है।
संतति सुख प्रत्येक दम्पति का अधिकार और अभिलाषा होते हैं परन्तु प्रत्येक युगल संतति सुख से अभिसिंचित होने हेतु पर्याप्त भाग्यशाली नहीं होता । संततिहीनता की वेदना से ग्रसित अनेक दम्पतियों ने जब हमसे सम्पर्क किया, तब उनके आंतरिक दुःख और वास्तविक वेदना की मर्मान्तक पीड़ा से हमारा अन्तर कराह उठा और हमने संकल्प किया, संततिहीनता से मुक्ति प्राप्ति हेतु उपयुक्त एवं समुचित समाधान का। फलत: हमने 'सन्तान सुख सर्वाग चिन्तन' कृति की संरचना की, जिसके पाँच संस्करण अल्पकाल में ही पाठकों के पास पहुँच गये।
समय व्यतीत होने के साथसाथ ज्ञान और अनुभव का भी विस्तार होता है । इसी क्रम में एक लघु कृति 'व्रत विधान : विवाह एवं सन्तान' के लेखन हैतु भी अनेक विद्वानों, सहयोगियों, मित्रों तथा पुत्र सुखप्राप्ति की लालसा से व्याकुल दम्पतियों ने प्रबल अनुरोध किया, जिसका परिणाम है यह कृति । इस कृति में सन्निहित अनेक पुत्रप्रदाता व्रत हमारे द्वारा अनुभूत हैं । अत: हम साधकों और आराधकों को, जो पुत्र सुख से वंचित हैं, उन्हैं इस कृति में समायोजित व्रतों के सम्पूर्ण निष्ठा, आस्था और विश्वास के साथ अनुसरण करने हेतु परामर्श प्रदान करते हैं । यह सभी व्रत ऋषियों और महर्षियों ने दिव्य दृष्टि का उपयोग करके जग के कल्याण तथा पुत्र सुख की प्राप्ति हेतु, धरतीवासियो को प्रदान करके हम सब पर महान उपकार किया कै । 'व्रत विधान विवाह एवं सन्तान' नामक इस कृति में कात्यायनी व्रत, पुंसवन व्रत, पयोव्रत, श्रावण शुक्ल एकादशी व्रत तथा षष्ठी देवी आदि के पुत्रप्रदाता व्रत, श्रीमद्भागवत महापुराण, त्रिपुरा रहस्य आदि से उद्धृत किये गये हैं।
व्रत संपादन की प्रविधि का भी परिज्ञान अनिवार्य है । अज्ञानतावश व्रत में होने वाली त्रुटियाँ ही प्राय: प्रतिफल को अवरुद्ध करती हैं ।
'सर्वश्रेष्ठ अनुष्ठान व्रत विधान' शीर्षांकित अध्याय में व्रत विधान के सूक्ष्म ज्ञातव्य तथ्यों का उल्लेख किया गया है, जिनसे व्रत का अनुसरण करने वाले अधिकांश आराधक अनभिज्ञ हैं । भारतवर्ष में, व्रत की प्रतिष्ठित प्राचीन परम्परा, आधुनिकता और व्यावहारिकता कं कारण, अपनी वास्तविकता को विस्मृत करती जा रही है। कार्यसिद्धि, पुत्रप्राप्ति, दाम्पत्य सुख आदि की संसिद्धि हेतु शास्त्रों में अनेक मार्गो का अनुसरण उल्लिखित है, जिसमें वन की प्रधानता, महत्ता और सुगमता सर्वविदित है। आस्तिक समाज के अस्तित्व के वर्चस्व की स्थिरता हेतु व्रत विधान से सम्बन्धित इस अध्याय का अध्ययन और अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर सिद्ध होगा, यही मंगलाशा है। जो युवतियाँ पुत्र की कामना से अनेक प्रकार के परिहारों का अनुसरण करती हैं, उनके लिए मात्र पुत्रप्रदाता व्रत का विधिवत् अनुसरण ही कामना की संसिद्धि के सेतु का निर्माण करेगा। यह अचल विश्वास इस कृति का प्राण है।
'व्रत विधान विवाह एवं सन्तान' के सृजन क्रम में हम अपनी स्नेह संपदा, स्नेहाषिक्त पुत्री दीक्षा के सहयोग हेतु उन्हें हृदय के अन्तस्थल से अभिव्यक्त स्नेहाशीष तथा अनेक शुभकामनाओं से अभिषिक्त करके हर्षोल्लास का आभास करते हैं । अपने पुत्र विशाल तथा पुत्री दीक्षा के नटखट पुत्रों युग, अंश, नवांश तथा पुत्री युति के प्रति भी आभार, जिन्होंने अपनी आमोदिनीप्रमोदिनी प्रवृत्ति से लेखन के वातावरण को सरलतरल बनाया । स्नेहिल शिल्पी तथा प्रिय राहुल, जो हमारे पुत्र और पुत्री के जीवन सहचर हैं, का सम्मिलित सहयोग और उत्साहवर्द्धन हमारे प्रेरणा का आधार स्तम्भ है।
'व्रत विधान: विवाह एवं सन्तान' के रचनाक्रम में हम सर्वाधिक आभारी हैं उस शक्ति के, जिनकी निरन्तर प्रेरणा और प्रोत्साहन ने हमें सक्रिय ऊर्जा प्रदान करने के साथसाथ समुचित साधना, अभीष्ट संज्ञान तथा व्रत ऐसे विषय पर लेखन हेतु प्रेरित किया । हमारे चिंतन तथा मंथन का मुख्य धरातल तो ज्योतिष शास्त्र से संदर्भित जीवन के विभिन्न पक्ष हैं, परन्तु इसी महाशक्ति, आदिशक्ति ने हमें मंत्र, व्रत तथा परिहार संबंधी विषयों पर पूर्णत: प्रमाणित, शास्त्रोक्त लेखन हेतु विवश किया । ज्योतिषशास्त्र के अतिरिक्त मंत्र विज्ञान आदि पर अब तक हमने प्रमाणिक, प्रशंसित तथा प्रतिष्ठित लगभग ग्रंथों की संरचना करने में सफलता प्राप्त की। हम तो इन समस्त कृतियों के लेखन के महायज्ञ के सारथी मात्र हैं। वस्तुत: रथ पर तो विराजमान हैं भक्तिभाव के भव्य भुवन में प्रतिष्ठित, प्रजापति तनया, त्रिपुरसुन्दरी, पराम्बा, ज्ञानविज्ञान, परिज्ञानअभिज्ञान की अधिष्ठात्री शारदा, जिनके पदपंकज की पावनरज को हम बारंबार प्रणाम करते हैं।
हमें आभास है कि कचग्राही काल के कराल कर इस देह को समेट लेने हेतु तीव्रता के साथ निकट आ रहे हैं इसीलिए समस्त दायित्वों तथा कर्त्तव्यों से निवृत्त होने के चेष्टाक्रम में 'व्रत विधान विवाह एवं सन्तान प्रबुद्ध एवं ज्ञानी जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत है । यहाँ उल्लेखनीय है कि यह ज्योतिष से संबंधित हमारी कृतियों का एक और मुस्कराता, महकता मधुवन है । सुयोग्य, प्रतिभावान एवं प्रबुद्ध पाठकों की, रचना के अध्ययनोपरान्त, प्रतिक्रिया की आकुल हृदय से प्रतीक्षा है । तत्त्वान्वेषी निर्णय हमारा बहुप्रतीक्षित परीक्षाफल है। उसी की प्रतीक्षा की पल्लवित और पुष्पित पृष्ठभूमि की प्रफुल्लता प्रीतिप्रतीतिपरिपूरित परम पावन परमेश्वर का प्रसादामृत है । हमारी निर्मल अभिलाषा तथा सशक्त सदास्था है कि प्रबुद्ध पाठक वर्ग की अनवरत अभिशंसा, प्रशंसा से सर्वदा अभिसिंचितअभिषिक्त होता रहे शोध पल्लवित अनुसंधानपरक मंत्र ज्ञान, विज्ञान और अनुराग का पवित्र पावन प्रगति पथ।