Zindagi Ko Dhoodhate Hue : Aatmkatha-2
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Author: Sheoraj Singh Bechain
Brand: Vani Prakashan
Edition: First Edition
Binding: hardcover
Number Of Pages: 374
Release Date: 13-11-2024
EAN: 9789362870599
Package Dimensions: 7.8 x 5.1 x 0.7 inches
Languages: Hindi
Details: ज़िन्दगी को ढूँढ़ते हुए : श्यौराज जैसा दलित बालक बचपन से ही अपने यथार्थ अस्तित्व के प्रति बेहद सजग और संवेदनशील है। बचपन से युवावस्था तक झेले गये अनन्त अभावों, अपमानों, अन्यायों और नाना प्रकार के जाति-जन्य अन्यायों से चौबीस बाई सात के हिसाब से आहत दलित ज़िन्दगी की दिलों को दहला देने वाली यह विकट आपबीती को एक बार पढ़कर आप कभी भूल नहीं सकते। यह आपबीती आपसे भी सवाल पूछती चलती है कि जब एक बड़े समाज का जीवन इतना कठिन है तो आप इतने चैन में क्यों हैं? श्यौराज की सजगता जिस बेचैनियत को पैदा करती है, उसी से श्यौराज बेचैन बनते हैं, उनका यह उपनाम एकदम सटीक है। सब सहते हुए लेकिन एक पल को भी कहीं ‘सेल्फ पिटी' और ‘हाय रे दुर्भाग्यता-हतभाग्यता’ का परिताप करने की जगह, उनको अपने अस्तित्व की कंडीशन मान और अपने कुछ शुभचिन्तकों व साथियों के सहयोग से उनसे भी आगे निकलने की जिद, श्यौराज को एक नये प्रेरणादायक व्यक्तित्व का स्वामी बनाती है। - सुधीश पचौरी ★★★ इस किताब को पढ़ने से हमें अपने ही देश और समाज के एक ऐसे हिस्से की जानकारी मिलती है, जो हमारे लिए सामान्यतः अपरिचित और अनजान रह जाता है। हम अपने ही एक भाग को कुचलते रहते हैं, उसकी उपेक्षा और उसका तिरस्कार करते रहते हैं। इस किताब को पढ़कर सहृदय पाठक अधिक समझदार, अधिक देशभक्त और अधिक मानवीय हो सकताI - विश्वनाथ त्रिपाठी ★★★ आत्मकथा के इस खण्ड से गुज़रते हुए एक बात और समझ में आती है। श्यौराज जैसे किसी बच्चे का मुक़ाबला सिर्फ़ उस व्यवस्था से नहीं है जिसमें अगड़ी या मझोली जाति वाले शोषकीय भूमिका में हैं, उन अपनों से भी है जो एक स्तर पर यह शोषण झेलते भी हैं और करते भी हैं। जीवन के अभावों और सन्त्रासों ने उन्हें मनुष्य कम रहने दिया है–वे झूठ बोल सकते हैं, झगड़ा कर सकते हैं, आगे बढ़ते किसी शख़्स को रोकने की कोशिश कर सकते हैं, किसी का मनोबल तोड़ने के लिए किसी हद तक भी जा सकते हैं। यह दूसरा मोर्चा है जो लगातार बेचैन जी जैसे लेखक को भटकाता रहता है। -प्रियदर्शन ★★★ डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धे पर को पढ़ने के बाद लगा कि मैं अपनी सदी में नहीं हूँ, जैसे-जैसे मैं इसे पढ़ता गया, वैसे-वैसे अपने देश के लोकतन्त्र और उसके बारे में गढ़े गये सारे नारे ध्वस्त होते चले गये। बीसवीं सदी का सारा हिन्दी साहित्य बेमानी नज़र आने लगा। व्यवस्था बदलने की राजनीति के सारे दल पाखण्ड दिखाई देने लगे। एक किताब सारे समाज को नंगा करती चली गयी, गांधीवाद को भी और लोकशाही को भी। –कँवल भारती




